हिमायतनगर, एम अनिलकुमार| “मृत्यु से पूर्व भगवान के चरणों की गाँठ बाँध लेनी चाहिए” इसका अर्थ है कि यदि मृत्यु से पूर्व मन ईश्वर में रम जाए, तो आत्मा को दूसरे जन्म की आवश्यकता नहीं होती। गंगाजल, रामनाम, संतों का संग और भगवान के चरणों का स्मरण जीवन के अंत में मोक्ष का द्वार खोल देता है। श्रीमद्भागवत कथा केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, यह जन्म से मोक्ष तक व्यक्ति के संपूर्ण जीवन की आध्यात्मिक यात्रा बताती है। श्रीमद्भागवत (Shrimad Bhagwat Katha) कहती है, “व्यक्ति का सच्चा धर्म वह है जो ईश्वर के प्रति निस्वार्थ भक्ति उत्पन्न करे और जिससे आत्मा प्रसन्न हो।” “हर किसी के भाग्य के अनुसार सब कुछ पहले से ही लिखा हुआ है” भारतीय संस्कृति में ‘पूर्वनियति’, ‘कर्म’ और ‘दैवीय नियति’ के दर्शन से संबंधित है। ऐसे विचार स्वामी सारंग चैतन्यजी महाराज (Bhagwatcharya Sarang Chaitanyaji Maharaj) ने रखें।

वाढोणा स्थित श्री परमेश्वर मंदिर में रविवार, 27 तारीख को श्रीमद्भागवत महापुराण कथा का शुभारंभ हुआ। भागवताचार्य परम पूज्य विदर्भ केशव स्वामी सारंग चैतन्यजी महाराज की मधुर वाणी से श्रद्धालु मंत्रमुग्ध हो गए और पवित्र श्रावण मास की प्रथम कथा का प्रथम दिन आनंदमय वातावरण में बीता। सात दिवसीय महापुराण कथा के शुभारंभ अवसर पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित रहे, जिससे वातावरण में आध्यात्मिक रंग भर गया। सारंग चैतन्यजी महाराज के श्रीमुख से कथामृत की गंगा प्रवाहित होने लगी है।

प्रथम दिवस पर सारंग चैतन्यजी महाराज ने श्रद्धालुओं के समक्ष श्रीमद्भागवत की महिमा, व्यासपीठ का महत्व तथा धर्म, भक्ति एवं वैराग्य की प्रारंभिक रूपरेखा प्रस्तुत की। महाराज ने अपने प्रवचन में कहा, “जब मन में भक्ति होती है, तब श्रीकृष्ण स्वयं उस भक्त के पास आकर उसे पवित्र करते हैं।” जहाँ एक ओर कहा जाता है कि संत दो प्रकार के होते हैं, एक वे जो वर्तमान में दूसरों के लिए कुछ कर रहे हैं और दूसरे वे संत जो स्वयं के लिये सब कुछ करते हैं, वहीं दूसरी ओर “अवघाची संसार सुखाचा करिण” कविता अत्यंत गहन और समर्पित भक्ति को व्यक्त करती है। भक्ति केवल ध्यान या मंदिर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि हमारी संपूर्ण जीवनशैली में होनी चाहिए। यह पंक्ती सारंग चैतन्यजी महाराज के कीर्तन में अक्सर आती है। क्योंकि महाराज जीवन के हर क्षेत्र में संतों की शिक्षाओं को आत्मसात करने के महत्व की बात करते हैं। “भक्ति न केवल व्यक्ति को वैराग्य सिखाती है, बल्कि उसके जीवन को सुंदर भी बनाती है।”

श्रीमद्भागवत कथा को एक सप्ताह, अर्थात सात दिनों में सुनाए जाने के पीछे कुछ धार्मिक, आध्यात्मिक और व्यावहारिक कारण हैं। भगवान की लीलाओं, भक्ति और दर्शन का पावन, पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भागवत है, और श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया गीता का दिव्य ज्ञान भी। “भागवत सप्ताह” का अर्थ है कि ऋषि शुकदेव ने राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत कथा सुनाई थी, जब उनकी मृत्यु के केवल 7 दिन शेष थे। उन सात दिनों में परीक्षित ने सब कुछ त्यागकर केवल भागवत कथा का श्रवण किया और मोक्ष प्राप्त किया। स्वामीजी ने कहा कि यह परंपरा “भागवत सप्ताह” के रूप में आगे बढ़ती रही।

गुरु के बिना ईश्वर का अनुभव असंभव है, क्योंकि गुरु ही हमें ईश्वर तक पहुँचाते हैं। यदि हम सद्गुरु के सान्निध्य में हों, तो हमें जीवन का सच्चा अर्थ समझ में आता है। ईश्वर साकार है, वह सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में विद्यमान है। “यदि ईश्वर दिखाई नहीं देता, तो क्या वह मिथ्या होगा?” लेकिन भले ही हम वायु, प्रेम या विचारों को देख नहीं सकते, फिर भी हम उनके अस्तित्व में विश्वास करते हैं, है ना? ईश्वर अनुभव करने का विषय है, देखने का नहीं। स्वामीजी ने यह भी कहा कि श्रीमद्भागवत कथा का मूल आधार राजा परीक्षित (शिष्य) और श्री शुकदेवजी महाराज (गुरु) के बीच प्रश्नोत्तर संवाद, अर्थात् भागवत है।

“अज्ञान का आवरण हटाने के लिए उनका जन्म हुआ” यह वाक्य ईश्वर, संत या सद्गुरु के अवतार का वास्तविक कारण बताता है। लौकिक का अर्थ है “संसार से संबंधित”, अलौकिक का अर्थ है “संसार से परे”, अर्थात् प्रेम सांसारिक हो सकता है, परन्तु भक्ति प्रेम – श्री कृष्ण के प्रति राधा का प्रेम – अलौकिक है। “संसार में रहते हुए अलौकिक का स्मरण करो, तभी जीवन सार्थक होता है।” भागवत को “अमर कथा” कहा गया है। भागवत में भगवान की लीलाओं, भक्तों के चरित्र और आत्मज्ञान की कथा कही गई है। यह ज्ञान कभी पुराना नहीं पड़ता, ऐसा अध्यात्मिक विचार स्वामीजी ने प्रथम दिवस की कथा का समापन करते हुए कहा। इस समय बड़ी संख्या में पुरुष और महिला भक्तों ने उपस्थित लगाई थी।

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